काश वो लम्हा लौट आता...
कुछ लम्हे होते हैं जो बीत तो जाते हैं,
लेकिन दिल की किसी कोमल तह में हमेशा के लिए बस जाते हैं।
आज भी जब अकेले बैठा होता हूँ,
तो अक्सर वही एक पल ख्यालों में आकर दस्तक देता है —
वही मुस्कान, वही आवाज़, वही नज़रों की मासूम सी बात...
सब कुछ जैसे यहीं कहीं आसपास हो।
काश वो लम्हा लौट आता...
जब पहली बार उसने बिना कुछ कहे सब कुछ कह दिया था।
जब उसकी आँखों में मेरे लिए एक अनकहा विश्वास था,
और मेरी खामोशी में उसके लिए एक अबोली मोहब्बत।
वो शाम, जब धूप उतर रही थी और हम बिना कुछ कहे साथ चल रहे थे,
वो हँसी, जो पूरे दिन की थकान को मिटा देती थी,
वो शिकायतें, जो प्यार जताने का बहाना होती थीं,
सब कुछ, बस सब कुछ...
जैसे समय ने उस पल को चुन कर किसी ख़ास याद की तरह सहेज लिया हो।
अब जब ज़िंदगी भागती जा रही है —
काम, जिम्मेदारियाँ, मंज़िलें...
लेकिन वो लम्हा वहीं ठहरा हुआ है,
मेरे दिल के कोने में, धड़कनों के साथ।
काश वो लम्हा लौट आता...
तो शायद मैं कुछ और देर उसे देख पाता,
कुछ और बातें कह पाता,
या बस चुपचाप उसे थाम कर कह पाता –
"तू रुक जा, ये पल मत जा…"
अब तो बस यादें हैं और एक सवाल –
क्या बीते हुए पल वाकई कभी लौट सकते हैं?
शायद नहीं...
लेकिन हर बार जब आंखें नम होती हैं और दिल भारी,
तो लगता है कि वो लम्हा आज भी कहीं मेरे आस-पास है।
मेरे साथ चल रहा है, मेरी सांसों में बसा है।
